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आत्मघाती हमलों की वास्तविकता 

आत्महत्या हराम

आत्महत्या क्या है? क्या यह पाप है, अपराध है, या नहीं? यदि कोई इस पर अलग राय रखता हो, तो भी इस्लाम और मुसलमानों में इस बात पर कभी कोई मतभेद नहीं रहा कि यह हराम है, इसका करना एक बड़ा गुनाह है, और यह बुरा कर्म इंसान को हमेशा के लिए जहन्नम की ओर ले जाता है। लेकिन यह भी कड़वा सच है कि इतिहास के विभिन्न दौरों में इस कायरता को इस्लाम के नाम से जोड दिया गया, और समय-समय पर कुछ ऐसे समूह उभरे जिन्होंने इस बुराई को इस्लाम के नाम पर जायज ठहराने की कोशिश की और लोगों को गुमराह किया।

आजकल कुछ समाचार चैनल एक वीडियो चला रहे हैं जिसमें डॉ. उमर नबी नामक एक व्यक्ति 10 नवंबर 2025 को दिल्ली बम धमाके के संबंध में यह दावा करता दिखाई देता है कि जिसे दुनिया आत्मघाती हमला कहती है, वह उसके अनुसार “शहादत” है। वह आगे यह आभास देता है कि ऐसे काम धार्मिक रूप से जायज, इस्लामी परंपरा का हिस्सा, और ‘इस्तिशहादी अमल (स्वयं बलिदान) हैं।

मध्यकालीन बगदाद के इतिहास में इब्न सब्बाह

मध्यकालीन बगदाद के इतिहास में इब्न सब्बाह और उसके फ़िदाइयों की कहानियों बहुत प्रसिद्ध हैं। उसने पहाड़ों के बीच स्थित अपने किले में एक स्वर्ग जैसा बाग बनाया था। जो कोई भी उसके गिरोह में शामिल होता, उसे वह हशीश (नशा) पिलाकर उस नकली स्वर्ग को दिखाता, जहाँ दूध और शहद की नदियाँ, बाग-बगीचे, महल और हुरे होती। फिर इस स्वर्ग को पाने की लालसा में वे उसके आदेश पर आत्मघाती अभियान करते थे। इतिहास गवाह है कि इस अभिशाप के लिए इस्लाम और मुसलमानों को कैसी भयानक कीमत चुकानी पड़ी। इसी समूह के एक दुष्ट ने महान विद्वान, प्रभावशाली विचारक, युग निर्माता प्रशासक और बैंड वज़ीर निज़ाम-उल-मुल्क अबुल हसन अली तुसी की हत्या कर दी, जिन्होंने दुनिया को विधिवत शिक्षा प्रणाली का विचार दिया और बगदाद व निशापुर में पहली मदरसा प्रणाली स्थापित की।

आत्महत्या एक दोधारी तलवार

चाहे कोई सिर्फ अपनी जान ले या आत्मघाती हमला करे-आत्महत्या एक दोधारी तलवार है जो सबसे पहले इस्लाम का ही खून बहाती है। जब भी कोई आत्मघाती हमलावर मुसलमानों की भीड़ या उनके प्रतिष्ठानों को निशाना बनाता है, तो मुझे क़ज़मान की तलवार और जहाक के सॉप याद आते हैं। जहाक फारसी इतिहास का एक पौराणिक चरित्र था। वह मर्दास का बेटा था, जिसके राज्य में खूब समृद्धि थी। जब उसके विनाश का कोई रास्ता नजर नहीं आता था, तो शैतान एक सुंदर मनुष्य का रूप लेकर जहहाक का मित्र बन गया। उसने जहाक के दिल में यह बात डाल दी कि वह अपने पिता से अधिक योग्य है। मौका मिलते ही जहहाक ने अपने पिला को कुएँ में धक्का दे दिया। फिर शैतान ने जहाक की पीठ को हुआ, जिससे उसके कंधों पर दो सॉप उग आए। उन सांपों का भोजन युवकों का दिमाग था। हर दिन दो युवकों को लाया जाता और उनके दिमाग उन साँपों को खिलाए जाते। इस तरह देश के सभी ताज़ा और रचनात्मक दिमाग खत्म हो गए। इतिहासकार जहाक के शासन को ईरान के अंधकार युग की शुरुआत मानते हैं।

पैगंबर ने कज़मान जहन्नमी क्यों कहा?

कज़मान, पैगंबर मुहम्मद के साथ जिहाद के मैदान में बहादुरी दिखा रहा था। उसकी जोश की हद यह थी कि वह भागते हुए दुश्मनों का पीछा कर उन्हें मार देता और खुद को खतरे में डाल देता। जब पैगंबर को इस बहादुरी की खबर दी गई, तो उन्होंने कहा कि कज़मान जहन्नम का हकदार है। सही बुखारी और मुस्लिम में उल्लेख है कि युद्ध के बाद जब पैगंबर और सहाबा वापस लौटे, तो उनसे कहा गया कि उससे बढ़कर कोई बहादुर नहीं था, तो पैगंबर ने जवाब दिया कि “वह जहन्नम वालों में से है।” बाद में देखा गया कि वह गंभीर रूप से घायल हो गया था और दर्द से बचने के लिए उसने तलवार की नोक को जमीन में टिकाकर अपनी छाती उस पर रख दी और जान दे दी। तब सहाबा पर यह राज खुला कि पैगंबर ने उसे जहन्नमी क्यों कहा था।

मत मारो (अन-निसा 4:29)। पैगंबर ((कने सख्ती से चेतावनी दीः “जो आत्महत्या करेगा, वह कयामत के दिन उसी चौज से यातना दिया जाएगा।” (बुखारी और मुस्लिम)कुरआन और हदीस की यह स्पष्ट शिक्षा आत्मघाती गतिविधि की किसी भी दलील को-चाहे राजनीतिक हो, मजबूरी हो, प्रतिशोध हो-पूरी तरह निरस्त कर देती है।

अल्लाह फसाद करने वालों को पसंद नहीं करता

इस्लाम ने भय, आतंक, अराजकता और फसाद फैलाने के लिए एक व्यापक शब्द का प्रयोग किया है। कुरान कहता है. “अल्लाह फसाद करने वालों को पसंद नहीं करता (क़सस 28:77) और “धरती में सुधार के बाद फसाद मत फैलाओ (आराफ 7:56)। आतंकवादी हमले, बम विस्फोट, डर और दहशत फैलाना फसाद फिल-अर्ज के गुनाहों में से हैं। बहुत से उग्रवादी जिहाद की अवधारणा को तोड-मरोड़ देते हैं, लेकिन इस्लाम का जिहाद दो अर्थों में है: (1) आत्म-संशोधन और संघर्ष, और (2) जीवन और धर्म की रक्षा। लेकिन इस्लामी शरीअत आत्मघाती कार्रवाई की कभी अनुमति नहीं देती और न ही अपने आपको विनाश में डालने की।

कुरआन कहता है: “अल्लाह किसी जान पर उसकी क्षमता से अधिक बोझ नहीं डालता (बकरा 2:286)। इस्लाम ने शांति को युद्ध पर प्राथमिकता दी है और उसे ‘फत्ह मुबीन” (स्पष्ट विजय) कहा है। तो फिर निर्दोष लोगों-बच्चों, महिलाओं, बूढ़ों, युवाओं को निशाना बनाना कैसे जायज हो सकता है?

इस्लाम अत्याचारों को हतोत्साहित करता है

इस्लाम न केवल ऐसे अत्याचारों को हतोत्साहित करता है बल्कि कड़ी निंदा करता है। इमाम इब्न तैमिय्या लिखते हैं: “निर्दोषों की हत्या हर हालत में हराम है, यहाँ तक कि युद्ध के दौरान भी। अल-अज़हर (मिस) से लेकर मदीना मुनव्वरा (सऊदी अरब) तक, दुनिया भर के इस्लामी विद्वान और धार्मिक केंद्रों ने आत्मघाती हमलों को हराम और गैर-इस्लामी करार दिया है। भारत में भी दिल्ली, हैदराबाद, बरेली, देवबंद, और उत्तर व दक्षिण के सभी मदरसों और खानकाहों ने इस बुराई की निंदा की है।

इस्लाम अपने मानने वालों को अमन का रक्षक, न्याय का संरक्षक और मानव जीवन का संरक्षक बनने की दावत देता है।

इस्लाम अपने मानने वालों को अमन का रक्षक, न्याय का संरक्षक और मानव जीवन का संरक्षक बनने की दावत देता है। पैगंबर मुहम्मद (” (सारी दुनिया के लिए रहमत बनाकर भेजे गए थे। जो कोई भी कलमा पढ़ता है, उसे जहाँ भी हो-रहमत, करुणा और सुरक्षा का प्रतीक होना चाहिए, न कि आ और आतंक का। मुसलमानों को समझना चाहिए कि इस तरह की आतंकवादी गतिविधियों इस्लाम और मुसलमानों को डर और आतंक की निशानी बनाती है। और जो भी इस नापाक खेल के पीछे हैं, वे वही जहाक के सांप है-जिसका भोजन इस उम्मत के भविष्य की नुमाइंदगी करने वाले युवा दिमाग हैं।

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