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बिहार में गाँधी के सपनो की न्याय व्यवस्था उपेक्षित 

बिहार ग्राम कचहरी की स्थापना की रूपरेखा गांधी जी के सपनों को पूरा करने के लिए बनाई गयी थी और तात्कालिक चुनावी एजेंडों में काफी सुर्खियां बटोरी गई थी। बिहार ग्राम कचहरी का मॉडल देश के अन्य राज्यों के अलावा विदेशों में भी चर्चा का विषय बना। लेकिन यह एक मात्र चुनावी एजेंडों के अलावा और कुछ नहीं बन सका । भोली भाली जनता हर बार झांसें आ जाती हैं और अपना बहुमूल्य वोट यह सोच कर देती है कि वे हमारे समाज का विकास करेंगे किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं होता है। 

कहने को तो भारत की आत्मा गांवों में बस्ती और गांव की जनता आपसी झगड़े झंझट में नहीं पड़े, थाना पुलिस और जिले में स्थित महंगी कोर्ट में उलझ कर बर्बाद ना हो, अपने विवाद को गांव में ही एक सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से बिना खर्च एवं समय गंवाए निपटारा कर अपने काम धंधे में लग जाये। इस प्रकार बिहार ग्राम कचहरी में हजारों मामले का निपटारा सहज रूप से किया गया जो ऐसा नहीं होता तो यह बाद में काफी संगीन हो सकता था ।  लेकिन विडंबना है कि इन सब के बावजूद बिहार ग्राम कचहरी उपेक्षित है, काम करने के लिए स्थान के अतिरिक्त सहयोग एवं संसाधनों की व्यवस्था नहीं है । कार्यरत कर्मचारी  उपेक्षित हैं। 

जहाँ जिला कोर्ट में कार्यरत पेशकार एवं क्लर्क का वेतन -50000 रुपये से अधिक एवं ए पी पी या पी पी का वेतन 70000 रुपये से ज्यादा है वहीं सचिव का मानदेय 6000 से बढ़कर मात्र 9000 रुपये किया गया है।  न्यायमित्रों का बढ़ोतरी का मामला अधर में लटका हुआ है।  उनका मानदेय मात्र 7000 रुपये हीं है।

2015 से ही मानदेय का सपना दिखाया जा रहा है। सच तो यह है कि बिहार सरकार ग्राम कचहरी के विकास के प्रति उदासीन है वोट बैंक के लिए मुखिया, सरपंच को जड़ी सुंघा दिये है, कोई भय नहीं है। कहने को प्रजातंत्र है, किन्तु मनमानी राजतंत्र के जैसा ही है। जीवन यापन का अधिकार सभी नागरिकों के लिए एक समान होना चाहिए। समय आ गया है कि अपने अधिकार के लिए आंदोलन के बारे में शीघ्रता से विचार किया जाये, अन्यथा झुनझुना और लॉलीपॉप के अलावा की झोली में सिर्फ और सिर्फ झांसा हीं झांसा है। 

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