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निष्पक्ष चुनाव पर जिसकी होनी चाहिए नज़र वह है सच्चाई से बेखबर

शीतल झा

 

आजकल चुनाव का महापर्व का रंग चढ़ा हुआ है। कुछ पढ़े-लिखे, कुछ आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तो कुछ विवादित डिग्री वाले आजकल अपनी ज़ुबान की पिचकारी से सांप्रदायिक और धार्मिक भाषण के रंगों की बौछार कर रहे है और इन बातों पर नियंत्रण रखने वाली संवैधानिक संस्था ‘केंद्रीय चुनाव आयोग’ केंचुए की तरह ज़मीन में कहीं गुम होता नजर आ रहा है।

कई दिनों से लोगों के भाषण देखकर लग रहा है कि चुनाव में लागू आदर्श आचार संहिता के सभी मर्यादाओं को लांघकर पार किया जा रहा है। मीडिया भी एक सुर में गुणगान में लगी है। लोकतन्त्र के तीसरे स्तंभ माने जाने वाले मीडिया अब गोदी मीडिया के रूप में परिभाषित हो गये है। पर कुछ लोग अभी अभी सोशल मीडिया पर यथासंभव लोकतंत्र को बचाने में लगे हुए। उसे मीडिया के लोगों को सलाम।

आज एक राष्ट्रीय दैनिक में माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी का साक्षात्कार प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है “ कांग्रेस कर रही है ध्रुवीकरण, सच्चाई सामने लाना हमारा कर्तव्य” । इसे पढ़कर ऐसा लगा की भाजपा और मोदी जी समाज की रक्षा करने का बीड़ा उठाये हुए है और कांग्रेस समाज को बाँटने में लगी हुई है। पर अगर एक तार्किक इंसान की तरह सोचे तो ये स्पष्ट होता है राम के नाम पर, मंदिर के नाम पर, मुसलमान के नाम पर विभाजनकारी भाषण भाजपा के द्वारा दिये जा रहे है। मोदीजी मुस्लिम समुदाय को लेकर भ्रम फैला कर हिंदू को एकजुट कर ध्रुवीकरण कर रहे है।

टीवी एक इंटरव्यू में उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वो मन्दिर के नाम राजनीति करते है । उन्होंने यह भी कहा की जनता जान रही है कि राहुल मंदिर की बात करेंगे तो फिर राहुल और मोदी में क्या फर्क रह जायेगा। इस कथन से मोदीजी ने यह स्पष्ट कर दिया की मंदिर की बचाने और इस पर राजनीति करने के लिये इस युगपुरुष का जन्म हुआ है। मेरठ के उम्मीदवार ने तो श्रीराम का फोटो फ़्रेम लेकर वोट मांग कर तो हद ही पार कर दी। कांग्रेस के मेनिफेस्टो को मुस्लिम लीग से जोड़कर मीडिया ने टीवी पर कोहराम मचा दिया। मीडिया कांग्रेस से न पूछ कर मोदी जी से यह पूछना चाहिये था की किस पृष्ठ पर मुस्लिम लीग की छाप है। जब कांग्रेस ने इतिहास के पन्ने पलटने शुरू किया तो पता चला की श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनकी हिंदू महासभा आजादी से पहले मुस्लिम लीग के साथ कुछ राज्यों में सरकार का हिस्सा थी तब जाकर मोदी जी के ज़ुबान की पिचकारी से मुस्लिम लीग का रंग निकलना समाप्त हुआ।

उसी प्रकार ४०० पार का नारा देकर और कई भाजपा उम्मीदवार/नेता द्वारा संविधान बदलने की बात का समर्थन कर यह स्पष्ट कर दिया कहीं न कहीं कुछ मंशा तो है संविधान बदलने का। पर मीडिया भाजपा से न पूछकर कांग्रेस से सवाल करती है ऐसा कांग्रेस को क्यों लगता है। जबकि मीडिया को सरकार से और भाजपा के नेता से पूछना चाहिये कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा है। धर्म के नाम पर आरक्षण संविधान में प्रतिबंधित है फिर भी कुछ राज्यों द्वारा ऐसा किया गया है जो ग़लत है। ये मीडिया को पता लगाना चाहिये कि किसके कार्यकाल में ऐसा हुआ और वो राजनीतिक दल इस चुनाव में किस गठबंधन का हिस्सा है । मीडिया आजकल तार्किक न होकर हर्ड मेंटालिटी (herd) की हो गई है। स्कूप (scoop) वेब सीरीज का वो प्रसंग अभी भी याद है और आजकल बहुत प्रासंगिक भी है जिसमें एक ऐडिटर यह कहता है अगर किसी ने कहा की बाहर बारिश हो रही है तो जर्नलिस्ट को कुछ लिखने से पहले खिड़की खोलकर बाहर देख लेना चाहिये। पर आजकल ऐसा हो नहीं रहा है।

सवाल और उँगलियाँ सरकार पर उठायी जाती न की विपक्ष पर। परंतु यह पहली बार हो रहा है की मीडिया विपक्ष से प्रश्न पूछता है और मोदीजी या भाजपा से कोई सवाल नहीं पूछता है। ऐसा भयभीत और निःसहाय पत्रकारिता कभी नहीं देखी होगी। इमरजेंसी के समय भी एक राष्ट्रीय अख़बार ने एडिटोरियल का पेज ख़ाली रखकर अपना विरोध प्रकट किया था। पर आजकल ऐसे पत्रकारिता देखना दुर्लभ हो गया है। सोशल मीडिया पर कुछ लोग खूंटा गाड़े हुए है पर इंटरनेट और सोशल मीडिया की पहुँच शायद ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी सीमित है। इसलिये मुख्यधारा के मीडिया चैनलों को ये हिम्मत करना होगा की निष्पक्ष पत्रकारिता करें कम से कम चुनाव के समय ताकि जानता सोच समझकर अपने मताधिकार का प्रयोग करें।

संदेशखाली, नेहा मर्डर और उत्तर प्रदेश में एक हिंदू परिवार के बच्चों का मुस्लिम द्वारा क़त्ल किए जाने पर TV मीडिया दिन भर इसे कवर करती नज़र आयी। कुछ मीडिया के अग्निवीर तो संदेशखाली जाकर भी ग्राउंड रिपोर्टिंग किया और पीड़िता का बयान भी लिया। ये किया और सही भी है। ग़लत किए जाने को सजा मिलनी चाहिये। पर वही मीडिया रवन्ना केस /मणिपुर और बृजभूषण मामले में इतनी उत्सुकता देखाती नज़र नहीं आयी। बृजभूषण के पुत्र और सुषमा स्वराज के सुपुत्री के टिकट पर कोई सवाल नहीं पर अखिलेश और तेजस्वी पर सवाल पूछ सकते है। ऐसे में मुझे गंगाजल के उस इंस्पेक्टर बच्चा यादव का किरदार याद आता है जिसमे अजय देवगन उसे बताता है की बड़े बड़े केस बचा यादव बड़ी आसानी से सुलझा देता है पर जब साधु यादव का फ़ाइल देखता हूँ तो लगता है बचा यादव को कोई काम करने नहीं आता है। मीडिया को देखकर भी ऐसा ही लगता है इजरायल-हमास युद्ध हो या राहुल अमेठी से नहीं लड़े हो या राम मंदिर का उद्घाटन हो मीडिया बढ़ी शानदार तरीक़े से इसे कवर करती है पर जैसे ही भाजपा/मोदी जी के साथ स्मार्ट सिटी, दो करोड़ प्रतिवर्ष नौकरी, रेलवेज़/एयरपोर्ट्स का निजीकरण/ मणिपुर/सांप्रदायिक भाषण/ भ्रष्ट नेता का भाजपा द्वारा लांड्रिंग पर बात करनी हो तो मीडिया को सांप सूंघ जाता है।

लोकतंत्र को फल-फूलने के लिये ये आवश्यक है की न सिर्फ़ चुनाव निष्पक्ष हो बल्कि चुनाव निष्पक्ष हो रहा है ऐसा भरोसा जनता को दिखाना चाहिये। परंतु आयोग इस समय बिलकुल विलुप्त सा हो गया है। मोदी जी के सांप्रदायिक भाषण पर यह इतनी साहस नहीं जुटा पायी की उनको सीधे नोटीस कर जवाब माँग सके। बदले में पार्टी के अध्यक्ष को नोटिस भेजा। जवाब आया भी की नहीं ये भी मीडिया ने नहीं बताया। आप पार्टी के एक वीडियो को आपत्तिजनक बताते हुए रिलीज़ करने से रोक दिया। दूसरी ओर कुछ लोग मुस्लिम/राम मंदिर/पाकिस्तान के नाम पर बयान देने वाले के मामले में गांधीजी के तीन बंदर की तरह बर्ताव कर रहा है। न देख रहा, न सुन रहा और न ही कुछ बोल रहा है। हाल ही में एक उम्मीदवार ने यह कहा की जो भाजपा को वोट देते है वो राम के साथ और जो नहीं देते है वो पाकिस्तान के साथ है। ऐसे भड़काऊ भाषण पर कुछ तो शांत है पर राज्य की पुलिस भी अपंग हो गई है। देश के सर्वोच्च न्यायालय का स्पष्ट निर्देश है की किसी भी विभाजनकारी/सांप्रदायिक भाषण पर पुलिस को बिना किसी शिकायत के दर्ज होने का इंतज़ार किए बिना स्वतः संज्ञान लेकर मुकदमा दर्ज कर कार्रवाई करनी चाहिये। परंतु कुछ ऐसा नहीं हुआ, न किसी पुलिस ने कोई केस दर्ज की और न किसी ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना केस भी दर्ज किया।

कहने और लिखने के लिये बहुत कुछ है पर आखिर में मैं अमेठी/रायबरेली पर बताना चाहूँगा। चुनाव घोषणा से ही अमेठी/रायबरेली पर चर्चा मानो अंदाज अपना अपना फिल्म के अमर-प्रेम अमर-प्रेम की तरह हो गई। राहुल गांधी अमेठी से क्यों नहीं लड़े, वायनाड से क्यों लड़ रहे है, डर कर रायबरेली क्यों भाग गये ये सब कहने के बजाय मीडिया को भाजपा से यह पूछना चाहिये कि मोदी जी गुजरात से या दक्षिण भारत से क्यों नहीं लड़ते है। राहुल गांधी उत्तर और दक्षिण भारत दोनों क्षेत्र से लड़कर देश को जोड़ने का काम किया पर मोदी जी वाराणसी से बढ़कर और दक्षिण भारत से न लड़कर ऐसा सौतेला बर्ताव क्यों कर रहे है।

अंत में यही कहना है की चुनाव का परिणाम कुछ भी हो पर आयोग और मीडिया यदि अपना काम सही से करे तो लोकतंत्र की अस्मिता को बचाया जा सकता है। ऐसा होने से जनता का लोकतंत्र पर भरोसा और मजबूत होगा और भारत लोकतंत्र की गरिमा को अक्षुण्ण रखने वालों में अग्रणी माना जायेगा।

((यह लेखक के  निजी विचार हैं।)

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