तालिबान विदेश मंत्री की दिल्ली प्रेस कॉन्फ्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर रखना, प्रेस की आज़ादी और लैंगिक समानता पर हमला: अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन
New Delhi: AIPWA ने तालिबान के विदेश मंत्री की दिल्ली में हुई प्रेस कॉन्फ़्रेंस से महिला पत्रकारों को बाहर रखने की घटना की सख़्त निंदा की है। संगठन ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि महिलाओं को कमरे में प्रवेश से रोकना एक चौंकाने वाला कदम है, जो प्रेस की आज़ादी, लैंगिक समानता, लोकतांत्रिक सूचना के अधिकार और भारतीय संविधान के बुनियादी उसूलों पर सीधा हमला है.
संगठन के अनुसार भारत में घटी यह घटना कोई अलग-थलग मामला नहीं है. यह लैंगिक बहिष्कार और रूढ़िवादी असहिष्णुता के उस ख़तरनाक रुझान की झलक दिखाती है, जिसमें ‘रिवाज़’ या ‘सुरक्षा’ के बहाने औरतों को सार्वजनिक जीवन और पेशेवर दायरों से दूर रखने की कोशिश की जाती है. चाहे यह सोच बाहर से थोपी जाए या देश के अंदरूनी कट्टरपंथी ताक़तों से आए, नतीजा एक ही होता है — औरतों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है और उन्हें अपने पेशेवर अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है.
संगठन ने ऐसे किसी भी प्रयास को सिरे से खारिज किया है जो इस तरह के बहिष्कार को सामान्य या जायज ठहराने की कोशिश करें. संगठन के अनुसार एक लोकतांत्रिक समाज में प्रेस को पूरी तरह आजाद और बराबर होना चाहिए. हर मान्यता प्राप्त पत्रकार चाहे वह किसी भी लिंग का हो, को राजनीतिक घटनाओं और सार्वजनिक ब्रीफिंग में बिना रोक-टोक प्रवेश और रिपोर्टिंग का हक़ होना चाहिए. महिला पत्रकारों को चुप कराने या किनारे लगाने की कोशिश न सिर्फ़ मीडिया की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है, बल्कि जनता तक पहुँचने वाले नज़रियों और आवाज़ों के दायरे को भी सीमित कर देती है. चाहे तालिबान हो या आरएसएस ,दोनों का आधार एक ही है: धार्मिक कट्टरता का वही बदसूरत तर्क, जिसमें औरतों और आम नागरिकों की आजादी सबसे पहले कुर्बान होती है. कट्टरपंथी ताकतें अलग-अलग चोले में काम करती हैं, पर मकसद एक ही होता है.मनुवादी-आरएसएस-भाजपा-हिंदुत्व गठजोड़ भी इसका अपवाद नहीं है.
संगठन ने मांग की है कि:
1.इस कार्यक्रम के आयोजकों और ज़िम्मेदार अधिकारियों से कि वे एक सार्वजनिक स्पष्टीकरण जारी करें और माफ़ी मांगें.
2.मीडिया घरानों, प्रेस परिषदों और पत्रकार संगठनों से कि वे इस बहिष्कार की निंदा करें और सभी सरकारी आयोजनों में महिला पत्रकारों की पूरी और गैर-भेदभावपूर्ण पहुँच की मांग करें.
3.सरकारी अधिकारियों और राजनयिक मिशनों से कि वे प्रेस कार्यक्रमों में मान्यता और व्यवस्थाओं को गैर-भेदभाव और प्रेस स्वतंत्रता के अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सुनिश्चित करें.
4.नागरिक समाज, महिला समूहों और मीडिया पाठकों से कि वे प्रभावित पत्रकारों के साथ एकजुटता दिखाएँ और ऐसी संस्थागत सुरक्षा व्यवस्थाओं की मांग करें जो भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोक सकें.
यह समय सामूहिक कार्रवाई का है — प्रेस की आज़ादी, भारतीय संविधान, लैंगिक समानता और हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए डटकर खड़े होने का. हमारे सार्वजनिक स्थल और लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ सबके लिए खुली रहें, यही असली कसौटी है. प्रेस के आधे हिस्से को चुप कराना, दरअसल, लोकतंत्र पर ही हमला है.
