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पीत पत्रकारिता को बढ़ावा देने वाले को आत्म दर्शन करने की आवश्यकता

शीतल झा

 

प्रायः हर एक व्यक्ति के दिन की शुरुआत एक कप चाय और अखबार से होती है। माध्यम जो भी हो ऑनलाइन या ऑफलाइन । जब हम अख़बार पढ़ना शुरू करते है तो सबसे पहले नज़र हैडलाइन पर पड़ती और फिर अंदर की खबर पढ़ी जाती है। पर कई बार ऐसा देखा गया है की मुख्य शीर्षक से खबर का संबंध तथ्य से परे होता है। ये कैसी पत्रकारिता है? क्या ये पीत पत्रकारिता नहीं है जिसमें चिकन बिरयानी के नाम पर कौआ बिरयानी परोसा जाता है ? और खबर/पोस्ट पढ़ने-देखने वाला इस उधेड़बुन में रहता है कि ये सत्यता के कितने करीब है।

 

पीत पत्रकारिता एक ऐसी पत्रकारिता जिसमें सच्ची खबर ना देकर सनसनी फैलाने वाली शीर्षक बनाकर जनता के आगे परोसा जाता है जिससे खबर खूब बिके और चले । इसका इस्तेमाल पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने के लिया किया जा रहा है। क्योंकि इसमें किसी भी खबर की पूरी जानकारी खोजने का दावा तो किया जाता है लेकिन असल में उस खबर का मर्म और मक़सद कुछ और ही होता है । इसका मतलब खबर मसालेदार तो होता है पर स्वादहीन होता है। इस तरह की पत्रकारिता को बढ़ावा देने में समाज के हर स्तर/वर्ग के लोगो की सहभागिता है । फिर चाहे वो पाठक हो या संपादक/संयोजक। पाठक सिर्फ़ खबर पड़ते है उसके वास्तविकता से अनजान रहते है तो कभी सनसनी खबर पढ़ कर चुस्की भी लेते है।इसलिये अख़बार समूह भी इस तरह के खबर प्रकाशित करने के लिये प्रेरित होते है। इस तरह की पत्रकारिता इलेक्ट्रॉनिक/टीवी मीडिया और सोशल मीडिया पर ज्यादा देखने को मिलती है।

 

 

प्रिंट मीडिया में ज्यादातर इस तरह की पत्रकारिता टैब्लॉयड या फिर शाम को प्रकाशित होने वाली अख़बार में देखने को मिलती है। इसके मक़सद कई हो सकते है। मुख्य रूप से चैनल/पोस्ट की व्यूअरशिप या अखबार की सर्कुलेशन बढ़ाने के लिये ऐसा किया जाता है। कई बार तो इसकी सीमा लांघ कर इस खबर को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाई जाती और इस तरह से दिखाया जाता है की जनता को कभी-कभी अपनी सामान्य समझ पर ही संदेह होने लगता है। एक मसला याद आता है जब इजरायल-हमास युद्ध पिछले वर्ष शुरू हुआ था। तो मीडिया, खासकर टीवी मीडिया, इस तरह से कवर किया गया था की लगा की भारत स्वयं युद्ध में कूद गया और इसका खतरा हम सब भारतीय पर मंडरा रहा है। कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि शायद कुछ गंभीर और राष्ट्रव्यापी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिये भी ऐसा किया जाता है।

 

आज के इस भागमभाग दुनिया में जिधर नज़र जाती है कई तरह के डिस्ट्रैक्शन है जो इंसान के ध्यान भटकाने के लिये काफ़ी है। टीआरपी, मिलियन व्यू और सब्स्क्रिप्शन बढ़ाने की दौड़ लगी हुई है। ऐसे में टीवी/ सोशल मीडिया पर सक्रिय चैनलों को अपनी लोकप्रियता लगातार बरकरार रखने के साथ साथ राजस्व/लाभ के लिये भी इस तरह की पत्रकारिता का सहारा लिया जाता है। परंतु इस तरह की पत्रकारिता से खबर बनती नहीं है बल्कि बनायी जाती है। जहाँ नैतिकता और सिद्धांत जैसी शब्दों की तिलांजलि दी जाती है। ऐसे में देश की लोकतांत्रिक स्मिता को भी ठेस लगती है और नागरिक के मौलिक अधिकार का भी हनन होता है। मीडिया भारत देश में प्रायः स्वतः रेगुलेट होती है। डिजिटल/सोशल मीडिया सशक्त नियंत्रण के अभाव में फलफूल रहा है।प्रेस कौंसिल ऑफ़ इंडिया और नेशनल ब्रॉडकास्टिंग स्टेटण्डर्ड अथॉरिटी भी उतनी सशक्त नहीं है।

 

ऐसे में पीत पत्रकारिता, जो कि यथार्थ से परे है और नैतिकता विहीन है, को बढ़ावा देने वाले को आत्म दर्शन करने की आवश्यकता है। मीडिया के लिये आदर्श संहिता तो है पर इसको ठोस रूप से लागू नहीं किया जाता है। जिस तरह चुनाव के लिये आदर्श आचार संहिता सभी राजनीतिक दल के सर्वसम्मति से तैयार किया गया था और सभी दल के द्वारा नैतिक रूप से पालन भी किया जाता है। उसी तर्ज पर मीडिया (प्रिंट/टीवी/डिजिटल सोशल) के लिये भी आदर्श आचार संहिता होनी चाहिये। जिसे लागू करने के लिये चुनाव आयोग के समतुल्य शक्तियों सीबीआई/एनबीएसए को भी दी जानी चाहिये ताकि प्रेस की स्वतंत्रता और सत्यता/नैतिकता के बीच एक संतुलन स्थापित कर सके।

 

इसी संदर्भ में मैंने कुछ पत्रकारों से भी बात करके उनके राय लिये तो पता चला वो भी इसके ख़िलाफ़ है।  कन्हैया जी, जो के मुख्यतः डिफेंस से रहे है उसके बाद वो पत्रकारिता में आये ,14 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे है।  “आपकी बात बिल्कुल सही है कि आज पीत पत्रकारिता हो रही है। जिसमें तथ्यों की तुलना में समाचार को सनसनीखेज बनाने पर अधिक जोर दिया जाता है। पर यह भी सच है कि ज्यादातर लोग भी सनसनीखेज खबरों को ही प्रमुखता से पढ़ते हैं। इसके बावजूद आज भी बड़ी संख्या में ऐसे पत्रकार हैं जो पीत पत्रकारिता से बचे हुए हैं।पीत पत्रकारिता के साथ झूठे मुद्दे चलते है। दोनों का उद्देश्य पाठक और दर्शकों की संख्या बढ़ाना है। पर मैं इसे पूरी तरह गलत मानता हूं। इससे बचा जाना चाहिए। आज सोशल मीडिया पर गलत तथ्य और फर्जी समाचारों वाली पत्रकारिता का प्रचलन बढ़ा है। यह गंभीर चिंता का विषय है, इससे पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट आती है।

 

आनंद कुमार एक्स एडिटर हिंदुस्तान जमशेदपुर एंड पोलिटिकल एनालिस्ट जो 28 वर्षों से पत्रकारिता से जुड़े है उनका ये मानना है कि अब बहुत कम ही जगह पर पत्रकारिता हो रही है. ज्यादातर पत्रकार या मीडिया संस्थान किसी न किसी के पक्ष में खड़े हैं. पूरी तरह से निष्पक्ष कोई नहीं बचा है. पत्रकारिता में विचारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है. खबर पूरी तरह से तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, लेकिन अब समाचारों में भी विचार डाले जा रहे हैं या समाचारों को इस तरह से लिखा जा रहा है कि वह किसी खास व्यक्ति या दल के पक्ष में और किसी खास व्यक्ति या दल के विपक्ष में प्रतीत होते हैं और यहां तक कि हेडलाइंस के साथ भी यही हो रहा है.

 

पत्रकारिता के छात्र के रूप में और बाद में पत्रकारिता के नामवर लोगों के साथ काम करते हुए मैंने यही सीखा था कि समाचार तथ्यों पर आधारित होने चाहिए, उसमें विचारों की मिलावट की जरा सी भी गुंजाइश नहीं है. अगर आपको अपने विचार रखते हैं तो आप लेख लिखें, विश्लेषण और टिप्पणियां लिखें, लेकिन अब समाचार में ही तथ्य कम रहते हैं टिप्पणी ज्यादा रहती है. और पीत पत्रकारिता नाम का तो अब शब्द ही गायब हो गया है. अब या तो गोदी मीडिया शब्द का उपयोग हो रहा है या फिर सीधे-सीधे उसे अखबार, चैनल या पत्रकार को ही दल विशेष का माउथपीस बता दिया जाता है. और इसमें बहुत हद तक सच्चाई भी है.इसका सबसे बड़ा कारण सरकारी विज्ञापन है या मीडिया संस्थानों या पत्रकारों की सरकार से मिलने वाले लाभ की इच्छा है और कुछ हद तक सत्ता का दबाव भी है.।
दिलीप, जो 20 साल से पत्रकारिता कर रहे है, का मानना है की सनसनीखेज व टीआरपी के लिए हाल के कुछ वर्षों में थोड़ा बहुत ऐसा होने लगा है। प्रिंट मीडिया में बहुत हद तक इसपर नियंत्रण है। वेब व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पीत पत्रकारिता ज्यादा देखने को मिलती है। पीत पत्रकारिता का विरोधी हूं। तथ्यों से इतर अनावश्यक सनसनी फैलाने से उस समाचार पत्र, मीडिया हाउस की विश्वसनीयता घटती है। तथ्य से हटकर सनसनीखेज खबरों को परोसकर बहुत दिनों तक खुद को स्थापित नहीं कर सकते हैं। खबर में गुणवत्ता, सही तथ्य का होना जरूरी है। जिस पत्रकार के पास यह नहीं है उसकी पत्रकारिता कुछ समय बाद मृत प्राय होने लगती है।

राज कुमार, जो 23 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे है और वर्तमान में हिंदुस्तान टाइम्स के विशेष संवाददाता है, का मानना है की भारत में पीत पत्रकारिता की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। सत्य वही है जिसे न्यायालय में सिद्ध किया जा सके। परन्तु सभी पत्रकार इस पर विचार नहीं करते।  आम तौर पर पीत पत्रकारिता के शिकार लोग इसके खिलाफ आवाज उठाने की जहमत नहीं उठाते। सोचते हैं कौन झंझट मोल ले।  अगर कोई पत्रकार सत्य सिद्ध करने में विफल रहता है तो उसे उचित सजा मिलनी चाहिए और अगर पीत पत्रकारिता का आरोप लगाने वाला व्यक्ति सत्य सिद्ध करने में विफल रहता है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन यह जान लेना चाहिए कि निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणी पीत पत्रकारिता नहीं है। इसमें इरादे की अहम भूमिका होती है।

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