प्रायः हर एक व्यक्ति के दिन की शुरुआत एक कप चाय और अखबार से होती है। माध्यम जो भी हो ऑनलाइन या ऑफलाइन । जब हम अख़बार पढ़ना शुरू करते है तो सबसे पहले नज़र हैडलाइन पर पड़ती और फिर अंदर की खबर पढ़ी जाती है। पर कई बार ऐसा देखा गया है की मुख्य शीर्षक से खबर का संबंध तथ्य से परे होता है। ये कैसी पत्रकारिता है? क्या ये पीत पत्रकारिता नहीं है जिसमें चिकन बिरयानी के नाम पर कौआ बिरयानी परोसा जाता है ? और खबर/पोस्ट पढ़ने-देखने वाला इस उधेड़बुन में रहता है कि ये सत्यता के कितने करीब है।
राज कुमार, जो 23 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे है और वर्तमान में हिंदुस्तान टाइम्स के विशेष संवाददाता है, का मानना है की भारत में पीत पत्रकारिता की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। सत्य वही है जिसे न्यायालय में सिद्ध किया जा सके। परन्तु सभी पत्रकार इस पर विचार नहीं करते। आम तौर पर पीत पत्रकारिता के शिकार लोग इसके खिलाफ आवाज उठाने की जहमत नहीं उठाते। सोचते हैं कौन झंझट मोल ले। अगर कोई पत्रकार सत्य सिद्ध करने में विफल रहता है तो उसे उचित सजा मिलनी चाहिए और अगर पीत पत्रकारिता का आरोप लगाने वाला व्यक्ति सत्य सिद्ध करने में विफल रहता है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए। लेकिन यह जान लेना चाहिए कि निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणी पीत पत्रकारिता नहीं है। इसमें इरादे की अहम भूमिका होती है।