शीतल झा
महिला और बच्ची समाज के अभिन्न अंग है। महिला से समाज का उत्थान होता है। फिर भी इनकी अस्मिता हमेशा खतरे में रहती है। कभी घरेलू हिंसा तो कभी छेड़खानी, तो कभी एसिड अटैक तो कभी थप्पड़ तो कभी डायन हत्या तो कभी बलात्कार की शिकार होती रहती है। इन सब में बलात्कार एक ऐसा समस्या और अपराध है जिस पर समाज और कानून अभी तक काबू नहीं पा सका है।
बलात्कार वो शब्द जिसे सुन के हर एक औरत अंदर से कमजोर महसूस करती है । बलात्कार संस्कृत शब्द है। यह दो शब्दों की सन्धि है “बलात्” + “कार्य” = “बलात्कार्य” यानी “बलात्कार”। “बलात्” “बल” शब्द का पंचम विभक्ति है, जिसका अर्थ “बल से” है और कार्य मतलब काम। इसका वास्तविक अर्थ होता है जब किसी व्यक्ति के साथ उनके सहमति के ख़िलाफ़ , ज़बरदस्ती या इच्छा के विरूद्ध शारीरिक या आत्मिक रूप से अपराध करना। इसके शिकार हर वर्ग के महिला और बच्ची होती है ।
बलात्कार बहुत ही संवेदनशील और गंभीर विषय है। सबसे ज़्यादा चर्चा इस विषय पर ही होते है पर परिणाम कुछ नहीं निकल पाया आज तक । आंकड़ों के लेंस से देखे तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2021 वार्षिक रिपोर्ट के आधार पर कुल 31677 केस रजिस्टर्ड हुए है जबकि वर्ष 2020 में कुल 28046 केस रजिस्टर्ड हुए। मतलब 86 केस प्रतिदिन और लगभग साढ़े तीन केस प्रति घंटे।
इसके अलावा कई ऐसे मामले जो रजिस्टर्ड नहीं हुए वो अलग। अगर गौर करे इन आंकड़ों पर तो रूह कांप जाते है। निर्भया केस के बाद जन सैलाब आया और लोग प्रखर होकर इस अपराध के लिये ठोस कानून की मांग किए। उसके बाद लोग खुलकर सामने आने लगे फिर भी समय के साथ कुछ ठोस सुधार नहीं दिखा। लोग जागरूक तो हो गये है पर फिर भी समाज के डर से बहुत लोग चुप है। उन्हें बदनामी से डर लगता है कि पता नहीं उन्हें न्याय मिलेगा या नहीं , पुलिस केस दर्ज करेगी या नहीं ? कुछ लोग तो इस ग़लतफ़हमी में रह जाते है की लड़की में ही कोई दोष होगा अपना लड़का तो ग़लत हो ही नहीं सकता। इस सब से जूझ कर हिम्मत जुटा कर केस अगर दर्ज कर भी लिया जाये तो विडंबना यह है कि मानसिक प्रताड़ना और कानूनी दांवपेच से उभरना अपने आप में एक संघर्ष और सजा बन जाता है।
तर्क पर बात करे तो जो आरोपी है उसे इस सामाजिक और मानसिक यातना को झेलना चाहिये। संघर्ष उसे करना चाहिये। इसलिये समाज का नज़रिया बदलने की आवश्यकता है। आरोपी/बलात्कारी का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिये। आरोपी को हीन भाव से देखने के बजाय पीड़िता को देखा जाता है। ज्यादातर मामले में पीड़ित महिला/लड़की अपना निवास स्थान छोड़ कर दूसरे जगह बस जाते है और ये डर सताता रहता है कि कोई उसे पहचान न ले। ये डर तो आरोपी को होना चाहिये।
विवाह की चिंता और समाज क्या कहेगा के डर से पीड़ित महिला का मनोबल और साहस पहले ही टूट जाता है और बाकी कसर थाना और कोर्ट के दावपेंच पूरा कर देता है। आजकल समाज पीड़िता को कैसे स्वीकार करें इस पर जोर देने की ज़रूरत है। हमने स्लोगन तो बना दिया” बेटा बेटी एक समान, बेटी भी है वरदान “ पर इसको अमल नहीं कर पाये । लड़कियों को तो शिक्षा देते है कि ऐसे कपड़े पहने, ऐसे बैठो, यहाँ मत जाओ इत्यादि पर लड़कों को बचपन से ये क्यों नहीं दिखाया जाता कि लड़कियों के इज़्ज़त करो, उन्हें गंदी नज़रों से मत देखो। घर में दिया गया मौलिक और नैतिक शिक्षा से समाज की नींव मजबूत बनायी जाती है।
महिला/लड़कियों के प्रति सही व्यवहार की शिक्षा घर/परिवार से शुरू होना चाहिये। ये शिक्षा सिर्फ़ नवरात्रि के नवमी तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये कि कन्या को प्रणाम किए भोग लगाये और फिर भूल जाये। सामाजिक-मानसिक पीड़ा के साथ साथ कानूनी प्रक्रिया पीड़िता के संयम का इम्तहान लेती है। अभी भी बलात्कार के मामलों में केस की सुनवाई घोंघे के स्पीड से चलती है और ये लंबी प्रक्रिया अपने आप में पीड़ित औरत के लिये सज़ा बन जाता है और आरोपी के मनोबल को मजबूत करता है। जिस तरह पॉक्सो के लिये विशेष कोर्ट बनाये गये है वैसे ही बलात्कार के ट्रायल के लिये विशेष कोर्ट बनाने चाहिये। ऐसे स्पेशल कोर्ट के जज अनिवार्य रूप से महिला होनी चाहिये।
यूएपीए और पीएमएलए के तर्ज पर बेल की शर्तों को और कठोर बनाना चाहिये। बर्डन ऑफ़ प्रूफ़ आरोपी पर होना चाहिये। आरोप सिद्ध होने के बाद आरोपी के नाम और पोस्टर पब्लिक फोरम पर डिस्प्ले होना चाहिये। मीडिया भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। ट्रायल पूरी होने के बाद कोर्ट के द्वारा जिस दिन सजा सुनाया जाये तो उसका लाइव टेलीकास्ट लोकल चैनल पर होनी चाहिये। इससे आरोपी के मन में डर बना रहेगा और डर बना भी रहना चाहिये।
मेरा ये मानना है कि महिला संबंधित क़ानून के मुख्य धाराओं और पॉक्सो कानून की जानकारी स्कूली शिक्षा का हिस्सा होना चाहिये। स्कूल में क्लास 6-12 के लड़कियों के लिये अलग से क्लास होना चाहिये। FIR दर्ज करने से लेकर ट्रायल तक की प्रक्रिया की समझ होनी चाहिये। बालिकाओं को सशक्त और जागरूक बनाने में राष्ट्रीय महिला आयोग और राज्य महिला आयोग और सक्रिय भूमिका निभा सकता है। बलात्कार जैसे अपराध का निवारण के लिये समाज के हर वर्ग के लोग को सक्रिय और जागरूक होना पड़ेगा।
समाज में पीड़ित महिला का पुनः समावेश और सुरक्षा पर स्पष्ट नीति बनाने की ज़रूरत जो काग़ज़ी न होकर ठोस रूप से सतह पर लागू हो सके। पुलिस और न्यायिक प्रक्रिया पीड़िता के नजरिये से सहज होना चाहिये और आरोपी के लिये कठोरतम होनी चाहिये। आरोपी को लेकर मीडिया और आयोग को और भी सक्रियता से कार्य करने की ज़रूरत है ताकि प्रत्येक रेप केस को उतनी ही गंभीरता से ली जाये। अंत में आम जनता से ये गुज़ारिश रहेगी कि सोश्यल मीडिया के जमाने में पीड़िता के बजाय आरोपी पर ज्यादा मुखर हो कर आवाज़ उठाये ताकि पीड़िता को कानूनी न्याय के साथ साथ सामाजिक और मानसिक न्याय मिल सके।